31, March 2025

जनजाति अंचल के लोक साहित्य की दृश्य-श्रव्य विधा – लोक नाट्य

Author(s): ¹डॉ. गणेश लाल निनामा, ²डॉ. योगिता निनामा,

Authors Affiliations:

¹आचार्य – हिन्दी, एस. बी. पी. राजकीय महाविद्यालय, डूंगरपुर (राजस्थान), भारत

²सह आचार्य – प्राणीशास्त्र, एस. बी. पी. राजकीय महाविद्यालय, डूंगरपुर (राजस्थान), भारत

DOIs:10.2018/SS/202503002     |     Paper ID: SS202503002


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जनजाति समाज की अनूठी परंपरा और संस्कृति को प्रदर्शित करने वाला आदिवासी नृत्य समूह में किया जाता है। यह अपने अनूठे कदमताल, गीतों, वाद्य यंत्रों के माध्यम से किया जाता है। अपनी अनूठी संस्कृति को प्रदर्शित करने के लिए तथा आध्यात्मिक दुनिया से संवाद का एक अनूठा तरीका नृत्य है जिसमें जनजातियां अपनी परंपरा और संस्कृति को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य करती हैं। गवरी एक धार्मिक नृत्य नाट्य है, रासलीला ज्ञान भक्ति और मनोरंजन की त्रिवेणी समाहित किए हुए हैं, गैर नृत्य सामाजिक मिलनोत्सव के साथ-साथ मदनोत्सव, वोरी मदमस्त स्वर लहरियों व ताल घुंघरूओं से युक्त, वाडी एक धार्मिक उत्सव व अलाद भूतों या पूर्वजों को बुलाने तथा विभिन्न मनोरंजन क्रियाएं करने के लिए किया जाता है। प्रकृति में रहने वाले आदिवासी गरीबी, बदहाली एवं बेकारी की मार से युक्त होकर भी नृत्य-नाट्य उत्सव में अपने आप को मदमस्त कर स्वर लहरियों व घूंघरूओं में सारी रात नाचते हुए बिता देते हैं। अतः लोक नृत्य जनजाति समाज की अनूठी परंपराओं और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

लोकनाट्य, गवरी, रास, वोरी, गैर, वाड़ी, अलाद ।

डॉ. गणेश लाल निनामा, डॉ. योगिता निनामा,(2025); जनजाति अंचल के लोक साहित्य की दृश्य-श्रव्य विधा – लोक नाट्य, Shikshan Sanshodhan : Journal of Arts, Humanities and Social Sciences,      ISSN(o): 2581-6241,  Volume – 8,   Issue –  3.,  Pp.8-12.        Available on –   https://shikshansanshodhan.researchculturesociety.org/

  1. डॉ सुंदरलाल शर्मा, दक्षिणी राजस्थान की जनजाति (संस्कृति, लोक, गीत एवं लोक नृत्य)
  2. डॉ. सी. एल. शर्मा, भील समाज-कला एवं संस्कृति
  3. लोक संस्कृति: पत्रिका – नवंबर, 1973

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