गुरु–शिष्य परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन
Author(s): 1. सुधांशु पाण्डेय 2. भावना तिवारी
Authors Affiliations:
1. सुधांशु पाण्डेय, शोधार्थी, इतिहास विभाग
सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय, उज्जैन, मध्यप्रदेश
2. भावना तिवारी, शोधार्थी, समाज कार्य विभाग,
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर, मध्य प्रदेश
DOIs:10.2018/SS/202510006     |     Paper ID: SS202510006
सार: भारतीय शिक्षा व्यवस्था का आधार रही गुरु–शिष्य परम्परा न केवल ज्ञान संचरण का माध्यम रही है, बल्कि यह चरित्र, जीवन-मूल्य और नैतिकता के विकास का भी महत्वपूर्ण स्तंभ रही है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक इसकी भूमिका में समयानुसार परिवर्तन आया, लेकिन इसके मूल सिद्धांत और महत्व आज भी प्रासंगिक हैं। सनातन धर्म दर्शन में ज्ञान केवल सूचना या सूचना-संग्रह नहीं है; यह आत्मिक विकास, विवेक और मोक्ष की प्राप्ति का साधन है।
गुरु–शिष्य परम्परा में गुरु केवल शिक्षक नहीं, बल्कि मार्गदर्शक, संरक्षक और जीवन के आदर्श होते थे। शिष्य केवल विषय की शिक्षा नहीं प्राप्त करता था, बल्कि धैर्य, साहस, आत्मनियंत्रण, नैतिकता और समाज के प्रति जिम्मेदारी भी सीखता था। स्वामी विवेकानंद और मां शारदा की चाकू वाली घटना इसका जीवंत उदाहरण है, जिसमें गुरु ने शिष्य की साहस, मानसिक संतुलन और विवेक की परीक्षा ली, ताकि वह जीवन में अपने उद्देश्य को पूरी निष्ठा और शांति के साथ निभा सके। इसी तरह चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य, तक्षशिला और नालंदा के गुरुकुल भी यह दिखाते हैं कि गुरु–शिष्य परंपरा ने न केवल ज्ञान और कौशल, बल्कि चरित्र और नेतृत्व क्षमता का भी निर्माण किया।
इस शोधपत्र में, इतिहास के गर्भ से उठाए गए उदाहरणों के माध्यम से गुरु–शिष्य संबंधों की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शैक्षणिक प्रासंगिकता को उजागर किया गया है। यह अध्ययन दर्शाता है कि गुरु–शिष्य परंपरा केवल ऐतिहासिक विरासत नहीं, बल्कि आज के शैक्षणिक और सामाजिक जीवन में भी जीवंत और उपयोगी है।
सुधांशु पाण्डेय, भावना तिवारी (2025); गुरु-शिष्य परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन, Shikshan Sanshodhan : Journal of Arts, Humanities and Social Sciences, ISSN(o): 2581-6241, Volume – 8, Issue – 10, Pp.35-40. Available on – https://shikshansanshodhan.researchculturesociety.org/
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